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जज, कुबल काव्य परिच्छेद: 90
भिक्षा माँगो उनसे तात तुम, जिनका उत्तम कोष । कभी बहाना वे करें, तो उनका ही दोष ।।१।।
जो मिलती है भाग्यवश, बिना हुए अपमान ।
वह ही भिक्षा चित्त को, देती हर्ष महान ।।२।। जो जाने कर्तव्य को, नहीं बहानेबाज । ऐसे नर से मांगना, रखता शोभा-साज ।। ३.५ .
जहाँ न होती स्वप्न में, विफल कभी भी भीख ।
कीर्ति बढ़े निज दान सम, लेकर उससे भीख ।।४।। भिक्षा से ही जीविका, करते लोग अनेक । कारण इसमें विश्व के, दानशूर ही एक ।।५।।
नहीं कृपण जो दान को, वे है धन्य धुरीण ।
उनके दर्शन मात्रसे, दुःस्थिति होती क्षीण ।।६।। बिना झिड़क या क्रोध के, दें जो दया-निधान । याचक उनको देख कर, पाते हर्ष महान ।।७।।
दानप्रवर्तक भिक्षुगण, जो न धरे अवतार ।
कठपुतली का नृत्य ही, तो होवे संसार ।।८।। भिक्षुकगण भी छोड़ दें, मिक्षा का यदि काम । तब वैभव औदार्य का, बसे कौन से धाम ||६||
भिक्षुक करे न रोष तब, जब दाता असमर्थ । कारण स्थिति एक सी, कहती नहीं समर्थ ।।१०।।
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