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ज, कुबल काव्य र परिच्छेदः १०८
क्षष्ट जीवन अहो पतित ये भ्रष्ट जन, नर से दिखें अनन्य । हमने ऐसा साम्य तो, कहीं न देखा अन्य ।।१।।
__ आर्य विवेकी से अधिक, सुखयुत होते भ्रष्ट ।
कारण भानस-दुःख का, उन्हें न व्यापे कष्ट ।।२।। अहो जगत में भ्रष्ट भी, लगते ईश समान । रहें स्वशासित नित्य चे, इससे वैसा भान ।।३।।
महादुष्ट जब अन्य में, देखें न्यून अधर्म ।
रना वह तन गर्व से. पाण. भरे निज कर्म ।।४।। भय से अथवा लोभ से, चलते दुष्ट सुमार्ग । चलते हैं वे अन्यथा, सदा अशुभ ही मार्ग ।।५।।
अधम पुरुष पुर ढोल सम, खोलें पर की सैंन ।
बिना कहे पर भेद को, मिले न उनको कैन ।।६।। घूसे से मुख तोड़ दे, उसके वश में नीच । गूंठा कर भी अन्यथा, नहीं झटकता नीच ।।७।।
एक वाक्य ही योग्य को, होता है पर्याप्त ।
गन्ने सम ही क्षुद्र दें, पीड़ित हो पर्याप्त ।।८। सुखी पड़ोसी देख खल, होता अधिक सरोष । लाता उसपर कोई सा, निन्दित भारी दोष ।। ६11
क्षुद्र मनुजपर आपदा, आजावे यदि टूट । तो आत्मा को शीघ्र ही, बेच करे निज छूट ॥१०।।
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