Book Title: Kural Kavya
Author(s): G R Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 299
________________ परिच्छेदः १२ वेश्या जिन्हें न नर से प्रेम है, धन से ही अनुकूल । कपट मधुर उनके बचन, बनते विपदा-मूल ।। ११॥ वेश्या मधुसम बोलती, धन की आय विचार । चाल ढाल उसकी समझ, दूर रहो यह सार ।।२।। गणिका उर से भेंटती, धनिक देख निज जार । ऊपर से कर धूर्तता, दिखलाती अति प्यार ।। लगे उसे पर चित्त में, प्रेमी की यह देह । बेगारी तम में छुए, ज्यों कोई मृतदेह ।।३।।(योग्य) व्रतभूषित नररत्न जो, होते मन्द-कषाय । करें न वेश्यासंग से, दूषित वे निज काय ||४| जिनके ज्ञान अगाध है, अथवा निर्मल बुद्धि । रूप-हाट से वे कभी, लेते नहीं अशुद्धि ।।५।। रूप अपावन बेचती, वेश्या चपल अपार । छुऐं ने उसका हाथ वे, जो हैं निजहितकार ।।६।। खोजें असती नारियाँ, नर ही अधम जघन्य । गले लगाती एक वे, सोचें मन से अन्य ।।७11 अविवेकी गुनते यही, पाकर वेश्या संग ।। स्वर्गसुधा सी अप्सरा, मानो लिपटी अंग ।।८।। बनी ठनी श्रृंगार से, वेश्या नरक समान । नाले जिसके बाहु हैं, डूबें कामी आन ।।६।। द्यूतचाट वेश्यागमन, और सुरा का पान । भाग्यश्री जिनकी हटी, उनके सुख सामान ।।१०।। ....... ... . --(292 . ..

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