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जी कुल काव्य पर
परिच्छेदः १०१
पिण्यायोगी पल खाय न खचे एक छदाम । तृष्णा छाई आठों याम । रक्खा यद्यपि अधिक निधान । मूजी मुर्दा एक समान ।।१।। धन ही भू में सब कुछ सार । करके ऐसा अटल विचार । लोभी जोड़े द्रव्य महान । राक्षस होवे तजकर प्राण ।।२।। जिसको धनमें अति अनुराग । यश में रहता किन्तु विराग । उसका जीवन है निस्सार । दुःखद उसका भू को भार ।।३।। पायी नहीं पड़ोसी प्रीति । कारण वर्ती नहीं सुरीति । फिर क्या आशा रखते तात । छोड़ सको जो निज पश्चात्।।४।। नहीं किसी को देवे दान । और न भोगे आप निधान । सचमुच वह है रंक खवीश । चाहे होवे कोटि अधीश ।।५।। भू में ऐसे भी कुछ लोग । वैभव का जो करें न भोग ।
और न देखें पर को दान । लक्ष्मी को वे रोग समान ।।६।। उचित पात्र को उचित न दान । तो धन होता ऐसा मान । सुभग सलौनी तरुणीरूप । बन में खोती आप जनूप ।।७।। कौन अर्थ का वह है कोष । नहीं गुणी को जिससे तोष । दुर्गुण की है एक खदान । ग्राम वृक्ष वह विष फलवान ।।८।। नहीं विचारा धर्माधर्म । काटा पेट हुए बेशर्म । जोड़ा वैभव विपदा धाम । आता सदा पराये काम ।।६।। दान से खाली जो भण्डार । निधि का बनता वही अगार । वर्षा से जो रीता मेघ । वह ही भरता फिर से मेघ ।। १०।।
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