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ज, कुशल काव्य र परिच्छेदः ६५
औषधि
ऋषि कहते इस देह में, वातादिक गुण तीन । और विषम जब ये बनें, होते रोग नवीन ।।१।।
पचजावे जब पूर्व का, जब जीमें जो आर्य ।
___ आवश्यक उसको नहीं, औषधि सेवन-कार्य ।२।। दीर्घवयी की रीति यह, जीमों बनकर शान्त । और पचे पश्चात फिर, जीमों हो निन्ति ।।३।।
जबतक पचे न पूर्व का, तब तक छुओ न अन्न ।
पचने पर जो सात्म्य हो, खा लो उसे प्रसत्र ।।४।। पथ्य तथा रुचिपूर्ण जो, भोजन करे सुपुष्ट । उस देही को देह की, व्यथा न धेरै दुष्ट ।।५।।
जीमें खाली पेट जो, उसको ढूँढ़े स्वास्थ्य ।
खाता यदि मात्रा अधिक, तो ढूँढ़े अस्वास्थ्य ।।६।। जठरानल को लाँघ कर, खाते हतधी-लोग । अनगिनते बहुभाँति के, धेरै उनको रोग ।।७।।
रोग तथा उत्पत्ति को, सोचो और निदान ।
पीछे उसके नाश का, करो प्रयत्न महान ।।८।। कैसा रोगी रोग क्या, क्या ऋतु का व्यवहार । सोचे पहले वैद्य फिर, करे चिकित्सा सार II ||
रोगी, भेषज, वैद्यवर, औषधि-विक्रयकार । चार चिकित्सा सिद्धि में, साधन ये हैं सार ।।१०।।
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