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ज, कुबल काव्य पर
कुरल काव्य । परिच्छन्दः ११
स्त्री की दासता नारी की पद-अर्चना, करने में जो लीन । उच्च नहीं वह आर्यजन, बने न विषयाधीन ।।918
जो विषयी निशदिन रहे, भरा मदन-सन्ताप ।
ऋद्धि सहित भी निन्ध हो,लज्जित होता आप ।।२।। नारी से दब कर रहे, सचमुच वह है क्लीव । भद्रों में वह लाज से, चले न हो उद्ग्रीव ।।३।।
प्रिया-भीत कामार्त को, देखे होता खेद ।
उस अभव्य हतभाग्य के, गुण रहते यश-भेद ।।४।। नारी की सेवार्थ ही, कामी का पुरुषार्थ । क्या क्षमता साहस करे, गुरुजन की सेवार्थ ।।५।।
प्रिया सुकोमल बाहु से, जो धूजे भय मान ।
मान नहीं उनका कहीं,जो हों देवसमान ।।६।। जिसपर चोली-राज्य की, प्रभुता का अधिकार । उससे कन्या ही भली, लज्जाभूषित सार ११७।।
प्रियाबचन ही कार्य में, जिनको नित्य प्रमाण ।
मित्रकार्य या और कुछ, करें न वे कल्याण ||८|| धर्म तथा धन से रहे, कामी को वैराग्य । प्रेमामृत के पान का, नहीं उसे सौभाग्य ।।६।।
कर्ता उत्तम कार्य के, भाग्य उदय के धाम । करें न विषयाशक्ति सी, दुर्मति का वे काम || १०|||
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