________________
-
जा दक्ष काव्य परिच्छेदः ७६ धनोपार्जन
थन भी अद्भुत वस्तु है, उस सम अन्य न द्रव्य । बनता जिससे रंक भी, धन्य प्रतिष्ठित भव्य ॥१।।
निर्धन का सर्वत्र ही, होता है अपमान ।
धनशाली पर विश्व में, पाता है सन्मान ।।२।। धन भी है इस लोक में, एक अखण्ड प्रकाश । तम में वह भी चन्द्रसम, करता नित्य उजाश ।।३।।
शुद्ध रीति से आय हो, न्याय तथा हो प्रोत ।
तो धन से बहाते सदा, पुण्य सुखद वर स्रोत ।।४।। जिस धन में करुणा नहीं, और न प्रेम निवास । उसका छूना पाप है, इच्छा विपदा ग्रास ।।५।।
दण्ड,मृतक,कर,युद्ध,धन, विविध शुल्क की आय ।
भूप-कोष की वृद्धि में, ये हैं पाँच सहाय ।।६।। है दयालुता प्रेम की, संतति स्वर्ग-उपा- 1 पालन को करुणा भरी, सम्पद उसकी थाय 11७।।
धनिक न होवे कार्य रच, चिन्ता में अवरुद्ध ।
वह देखे गिरिशृंग से,मानो गज का युद्ध ।।८।। रिपुजय की यदि चाह तो, करलो संचित अर्थ । कारण जय को एक ही, यह है शस्त्र समर्थ ।।६।।
संचित है जिसने किया, पौरुष से प्रचुरार्थ । करयुग में उसके धरे,शेष युगल पुरुषार्थ।। १०।।
.-.-.
.
-.-(260)