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ज, कुबल काव्य मारिदः 43
कपट-मैत्री मित्रभाव तो शत्रु का, अहो 'निहाई' जान । पीटेगा वह काल पा, तुमको धातु समान ।।१।।
भीतर जिस के द्रोह हो, पर ऊपर अनुराग।
नारी-मनसम शीघ्र ही, होता उसे विराग ।।२।। नर में चाहे शुद्धि हो, चाहे ज्ञान प्रगाढ़ । फिर भी यह संभव नहीं, शत्रु घृणा दे काढ़ ।।३।।
हँसकर बोले सामने, पर भीतर है नाग ।
डरो सदा उस दृष्ट से, यदि हो जीवन-राग ।।४।। हृदय नहीं हो सर्वथा, जिनका तेरे पास। मनमोहक बातें कहें, करो न पर, विश्वास ॥५।।
मित्रतुल्य मीठे बचन, बोले बारम्बार ।
फिर भी पल में शत्रु तो, खुलजाता विधिवार ।।६।। झुकजावे फिर भी कभी, करो न रिपु-विश्वास । कारण धनुष विनम्रता, करे अधिक ही त्रास ।।७।।
कर जोड़े रोवे अधिक, फिर भी क्या इतवार ।
छुपा हुआ रिपु के निकट, संभव ह्ये हथियार ।।८।। बाहिर मैत्री, चिन्त से, करे घृणा उपहास । मीठे बन, मौका मिले, करलो अरि को दास ||६||
कपट मित्र वैरी बने, बली न तुम भरपूर । तो बन माया-मित्र पर, रहो सदा ही दूर ।।१०।।
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