________________
- छुअन काव्य - परिच्छेदः ८१
घर का भेदी फब्बारा या कुंजवन, ज्यों हों बर्धक रोग ! अप्रिय होते बन्धु त्यों, रखकर अरि से योग ।।१।।
खुले खंगसम शत्रु से, क्या है डरकी बात ।
कपट मित्र से नित्य ही, भीत रहो हे तात ।।२।। सजग रहो उस दुष्टि से, जिसका हृदय न पूत । घात करे वह काल पा, ज्यों कुंभार का सूत ।।३।।
मित्ररूप से पास में, जो अरि करता वास ।
भेदबुद्धि वह डालकर, सजता विपद-निवास ।।४।। निजजन ही यदि क्रुद्ध हो, स्वयं करें विद्रोह । जीवन के लाले पड़ें, बढ़े विपद-सन्दोह ।।५।।
कपटवृत्ति का राज्य हो, जिस नृप के दरवार ।
होगा वह भी एक दिन, उसका स्वयं शिकार ।।६।। भेद पड़े फिर ऐक्य क्या, मिलता है अनुरूप । ढक्कन वर्तन से सदा, रखता भिन्न स्वरूप ।।७।।
मिल जाते वे भूमि में, जिनके घर में फूट ।
रेती से ज्यों लोह के, गिरते कणकण टूट 11८।। तिलसम भी यदि हो जहाँ, आपस का संघर्ष । सर्वनाश शिर पर नचे, हटे वहाँ उत्कर्ष ।।६।।
द्वेषी से जो रीति तज, बोले स्वजन रामान । बसें एक ही झोंपड़ी, विषधर साथी मान ।।१०।।
286