Book Title: Kural Kavya
Author(s): G R Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 287
________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ८६ उद्धतता उद्धतता से अन्य का, जो करता उपहास | उसमें इस ही दोष से, लोकघृणा का वास ॥१॥ कोई पड़ौसी जानकर, कलह- दृष्टि से त्रास । देवे तो, उत्तम यही, मत जूझो दे त्रास ||२|| कलहवृत्ति भी एक है, दुःखद बड़ी उपाधि । उसकी कीर्ति अनन्त जो, छोड़सका यह व्याधि || ३ || दुःखभरा औद्धत्य यह, जिसने त्यागा दूर । उसका मन आल्हाद से, रहे सदा भरपूर ||४|| मुक्त सदा विद्वेष से, जिनका मनोनियोग । सर्वप्रिय इस लोक में, होते वे ही लोग ||५| जिसे पड़ोसी द्वेष में आता है आनन्द । अधःपतन उसका यहाँ, होगा शीघ्र अमन्द ।। ६ ।। जो नृप मत्सर - भाव से, सब को करे विरुद्ध 1 झगड़ालू उस भूप की, राज्यवृद्धि अवरुद्ध ॥ ७ ॥ टाले से विग्रह सदा, ऋद्धि बड़े भरपूर । और बढ़ाने से अहो, नहीं पतन अतिदूर ||८|| | बचे सभी आवेश से, जब हो पुण्य विशेष । और वही हतभाग्य नर करे पड़ोसी द्वेष ।।६। मानव को विद्वेष से फल मिलता विद्वेष । शिष्टवृत्ति में शान्तियुत, रहे समन्वय शेष 1190 || 280

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