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ज, कुचल काध्य ।
परिच्छेदः ७४ वीर योद्धा का आत्मगौरव रे रे प्रभु के वैरियो, मत अकड़ो ले वान । बहुतेरे अरि युद्ध कर, पड़े चिता-पाषान ।।१।।
भाला यदि है चूकता, गज पर, तो भी मान ।
लगकर भी शश पर नहीं, देता शर सन्मान ।।२।। साहस ही है वीरता, रण में वह यमरूप । शरणागत वात्सल्य भी, दूजा सुभग स्वरूप ।।३।।
भाला गज में घूस निज, फिरे ढूँढता अन्य ।
देख उसे निजगात्र से खींचे वह भट धन्य ।।४।। रिपु भाले के बार से, झपजाते यदि दृष्टि । इससे बढ़कर वीर को, क्या हो लज्जा-दृष्टि ।।५।।
जिन दिवसों में वीर को, लगें न गहरे घाव ।।
उन दिवसों का व्यर्थ ही, मानें वे सद्भाव ।।६।। प्राणों का तज मोह जो, चाहे कीर्ति अपार । पग की बेड़ी भी उसे, बनती शोभागार ।।७।।
युद्ध समय जिसको नहीं, अन्तक से भी भीति ।
नायक के आतंक से,तजे न वह भटनीति ।।। करते करते साधना, जिसका जीवन मौन । हो जाये, उस वीर को, दोषविधायक कौन ।।६।।
स्वामी जिसको देखकर, भरदे आँखों नीर । भिक्षा से या चाटु से,लो वह मृत्यु सुवीर ।। १०॥
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