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-जी, कुमरल काव्य परपरिच्छेदः ७९
मित्रता सन्मैत्री की प्राप्तिसम, कौन कठिन है काम । उस समान इस विश्व में, कौन कवच बलधाम ।।१।।
मैत्री होती श्रेष्ठ की, चढ़ते चन्द्र समान ।
ओछे की होती वही, घटते चन्द्र समान ।।२।। सत्पुरुषों की मित्रता, है स्वाध्याय समान ।। प्रति दिन परिचय से जहाँ, झलके सद्गुणखान 11३।।
केवल मनोविनोद को, नहीं करें बुध प्रीत ।
भर्सित कर भी मित्र को, ले आते शुभरीति ।।४।। सदा साध चलना नहीं, और न बारम्बार । मिलना, मैत्री हेतु है, मन ही मुख्याधार ।।५।।
'मैत्रीगृह' गोष्ठी नहीं, होता जिस में हास्य ।
मैत्री होती प्रेम से, जो हरती औदास्य ।।६।। अशुभमार्ग से दूर कर, करदे कर्म पवित्र । दुःख समय भी साथ जो, वही मित्र सन्मित्र ।।७।।
उड़ते पट को शीघ्र ही, ज्यों पकड़ें कर दौड़ ।
मित्रकष्ट में मित्र त्यों, आते पल में दौड़ ।।८।। मैत्री मन की एकता, वहीं प्रीति दरवार । निज-पर के उत्कर्ष को, जहाँ विवेक-विचार ॥६॥ .
मैत्री या वाह रंकता, जिस में कार्य-हिसाब । मैत्री का फिर गर्व भी, रखे नहीं कुछ भाव ।। १०।।
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