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- कुल काव्य र
परिच्छेदः ८१
घनिष्ट मित्रता मैत्री वही घनिष्ट है, जिस में दो अनुरूप । आत्मा को अर्पण करें, प्रेमी को रुचिरूप ।।१।।
बुध सम्मत वह मित्रता, जिसमें यह वर्ताव ।
स्वाश्रित दोनों पक्ष हों,रखें न साथ दवाव।।२।। मित्र वस्तु पर मित्र का, दिखे नहीं कुछ स्वत्व । तो मैत्री किस मूल्य की, और रखे क्या तत्व ।।३।।
बिना लिये ही राय कुछ, कर लेवे यदि मित्र ।
तो प्रसन्न होता विक, सचमुन गादः मित्र !!": कष्ट मिले यदि मित्र से, तो उसका भावार्थ । या तो वह अज्ञान है, या मैत्री सत्यार्थ ।।५।।
एक हृदय सन्मित्र का, सच्चे तजें न साथ ।
नाश हेतु होवे भले, चाहे उसका साथ ||६|| जिस पर है चिरकाल से, मन में अति अनुराग । कर दे यदि वह हानि तो, होता नहीं विराग ।।७।।
मित्र नहीं सन्मित्र पर, सहता दोषारोप ।
फूले उस दिन मित्र जब, हरले अरि आरोप ॥८॥ जिसके हृदय हिमाद्रि से, प्रेमसिन्धु की धार । . बहे निरन्तर एक सी, उसे विश्व का प्यार ।।६।।
चिर मित्रों के साथ भी, शिथिल न जिसका प्रेम । ऐसे मानव रत्न को,अरि भी करते प्रेम ।।१०।।
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