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21 कुबल काव्य
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परिच्छेदः ७३
सभा में प्रौढ़ता वाक्कला को सीखकर, सद्रुचि जिसके पास । विज्ञों में खुलकर वही, करता बचन-विलास ।।१।।
सुदृढ़ रहे सिद्धान्त पर, विज्ञों में जो विज्ञ ।
विबुध उसे ही मानते, प्राज्ञों में सद्विज्ञ ।।२।। बड़े बड़े गम्भीर भट, मिलते शूर अनेक । सभा बीच निर्भीक हो वक्ता कोई एक ।।३।।
खुलकर दो विज्ञानधन, विज्ञों को हे विज्ञ ।
सीखो जो अज्ञात हो, उनसे जो हों विज्ञ ।।४।। संशयछेदक तर्क का, भलीभाँति लो ज्ञान । कारण दे तर्कज्ञ ही, निर्भय हो व्याख्यान ।।५।।
शक्तिहीन के हाथ ज्यों, शस्त्र न आवे काम ।
___ विज्ञों में भयभीत की, त्यों विद्या वेकाम ।।६।। श्रोताओं से भीत का, लगे उसी विध ज्ञान । जैसे रण में क्लीव के, कर में दिखे कृपाण ।।७।।
कह न सके निजज्ञान जो,विबुधों में विधिवार ।
सर्वमुखी पाण्डित्य भी,तो उसका निस्सार ।।८।। प्राज्ञों में आते अहो, जिनकी गाति हो बन्द । ऐसे ज्ञानी हैं अधिक, अज्ञों से भी मन्द ।।६।।
जाते ही जन संघ में, होकर भीति विशिष्टकह न सके सिद्धांत,वे जीवित मृतक अशिष्ट।।१०।।
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