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- कुबरम काव्य 17
परिच्छेदः ७१ मुखाकृति से मनोभाव समझना मनोभाव जो जानले, भाषण के ही पूर्व । मेधावी वह धन्य है पृथ्वी तिलक अपूर्व ।।१।।
प्रतिभा-बल से जानले,जो मन के सब भेद ।
पृथ्वी में वह देवता, मानो यही प्रभेद ।।२।। आकृति से ही भाँप ले, जो नर पर के भाव । बहुयत्नों से मंत्रणा, लो उसकी रख चाव ।।३।।
अज्ञ मनुज जो उक्त ही, जाने चतुर अनुक्त ।
आकृति यद्यपि एक सी, फिर भी भिन्न प्रयुक्त ।।४।। जो आँखें जाने नहीं, नर के हृद्गत भाव । ज्ञानेन्द्रिय में व्यर्थ ही, है उनका सद्भाव ।।५।।
___ पड़ती जैसे स्फटिक पर, वर्ण वर्ण की छाप ।
त्यों ही हार्दिक भाव भी,झलकें मुख पर आप ।।६।। भावपूर्ण मुख से नहीं, बढ़कर कोई वस्तु । हर्ष कोप सब से प्रथम, कहती यह ही वस्तु ।।७।।
बिना कहे ही जान ले, जो नर पर के भाव ।
दर्शन उसका सिद्धि दे, ऐसा पुण्यप्रभाव ||८|| निपुण पारखी भाव का, यदि होवे नर आप । तो केवल वह चक्षु से, राग घृणा ले भाँप ।।६।।
जो नर हैं इस विश्व में, भद्र धूर्त विख्यात । उनकी आँखें आप ही, कहतीं उनकी बात 119011
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