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ज, कुनाम काव्य परपरिच्छेद: ६७
स्वभावनिर्णय इच्छाबल से भिन्न क्या, यश में दिखे महत्व । पहुँचे उसके अंश तक, और न कोई तत्व ।।१।।
कार्यविनिश्चय के लिए, विज्ञ करें दो भाग ।
दृढ़ रहना उद्देश्य में, कर अशक्य का त्याग ।।२। कर्मठ कहें न ध्येय को, कार्यसिद्रि के पूर्व ।। आते नर पर अन्यथा, संकट अटल अपूर्व ॥३॥
वस्तुकथन तो लोक में, अहो सरल विख्यात ।
विधिक्त करना हाथ से, किन्तु कठिन है बात ।।४।। अति महत्व के कार्य कर, जिन की कीर्ति विशाल । महिमा उन की विश्व में, सेवा में भूपाल 11५!!
पूर्णशक्ति के साथ में, यदि सच्चा संकल्प ।
तो मिलती उस भाँति ही, वस्तु यथासंकल्प ।।६।। आकृति को ही देखकर, मत समझो वेकाम । चलते रथ में अक्षसम, करते वे ही काम ।।७।।
जो तुमने सद्बुद्धि से, ठानलिया है कार्य ।
सिद्ध करो रिश्शंक वह, पूर्ण शक्ति से आर्य 11८।। हर्षोत्पादक कार्य में, जुटजाओ धर टेक । डटे रहो तुम अन्त तक, जो भी कष्ट अनेक ।।६।।
चरित्र गठन के अर्थ जो, रखें न कुछ भी सत्व । लोकमान्य होते न वे, रखकर अन्य महत्व ।। १०।।
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