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- कुलत्य काव्य पर
परिच्छेदः १८
खिलमिता परधन लेने के लिए, जिसका मन ललचाय । नीतिविमुख वह क्रूरतम, क्षीण-वंश हो जाय ।।१।।
जिसे घृणा है पाप से, वह नर करे न लोभ ।
लगे न वह दुष्कर्म में, बढ़े न जिससे क्षोभ ॥२।। परसुख चिन्तक श्रेष्ठजन, त्यागें सदा अकार्य । क्षुद्र-सुखों के लोभ में, बनते नहीं अनार्य ।।३।।
जिसके वश में इन्द्रियाँ, तथा उदार विचार ।
ईप्सित भी परवस्तु लूँ, उसके ये न विचार ॥४।। ऐसी बुद्धि न काम की, लालच जिसे फँसाय । तथा समझ वह निन्द्य जो, दुष्कृति अर्थ सजाय ।।५।।
उत्तम पथ के जो पथिक, यश के रागी साथ ।
मिटते वे भी लोभवश, रच कुचक्र निज हाथ 11६।। तृष्णा संचित द्रव्य का, भोगकाल विकराल । त्यागो इसकी कामना, जिससे रहो निहाल ।।७।।
न्यून न हो मेरी कभी, लक्ष्मी ऐसी चाह ।
करते हो तो छीन धन, लो न पड़ौसी आह ।।८।। विदितनीति परधनविमुख, जो बुध, तो सस्नेह । ढूंढ़त ढूंढत आप श्री, पहुँचे उसके गेह ॥६।।
दूरदृष्टि से हीन का, तृष्णा से संहार । निर्लोभी की श्रेष्ठता, जीते सब संसार ।। १०।।