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-जा कुबल काव्य को
परिच्छेदः ॥
गुप्तचर राज्यस्थिति के ज्ञान को, भूपति के दो नेत्र । पहिला उनमें 'नीति' है, दूजा 'चर' है नेत्र ।।१।।
राजा के कर्तव्य में, यह भी निश्चित काम ।
देखे नृप चरचक्षु से, नरचर्या प्रतियाम ॥२॥ चर से या निज दूत से, घटनायें विज्ञात । जिस नृप को होती नहीं, उसे विजय क्या तात ।।३।।
रिपु, बान्धव या मृत्य की, गति मति के बोधार्थ ।
रक्खे घर को नित्य नृप, जो दे बात यथार्थ ।।४।। जिसकी मुखमुद्रा नहीं, करती कुछ सन्देह । वाक्यचतुर, निजमर्म का, रक्षक चर गुणगेह ।।५।।
साधु तपस्वीवेश में, रक्षित करके मर्म ।
__ भाँति-भाँति के यत्न से, साधे चर निजकर्म ।।६।। लेने में परमर्म को, जो है सहज प्रवीण । जिसकी खोजें सत्य हों, वह ही प्रणिधि-धुरीण ||७||
पूर्व प्रणिथि की सूचना, करे नृपति तब मान्य ।
उसमें परचर-उक्ति से, जब आवे प्रामाण्या।। आपस में अज्ञात हों, ऐसे चर दें कार्य । तीन कहें जब एक से, तब समझो सच आर्य ।।६।।
पुरस्कार निजराज्य के,चर का करो न ख्यात । सर्वराज्य ही अन्यथा,होगा पर को ज्ञात 11१०।।
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