________________
जय कुमार काव्य परपरिच्छेदः ॥3
संकट में धैर्य करो हैंसी से सामना, जब दे विपदा त्रास । विपदाजय को एक ही, प्रवल सहायक हास ।।१।।
अस्थिर भी एकाग्र हो, ले लेता जब चाप ।
क्षुब्ध जलधि भी दुःख का, दबजाता तब आप ॥२॥ विपदा को विपदा नहीं, माने जब नर आप । विपदा में पड़ लौटती, विपदाएं तब आप ।।३।।
करे विपद का सामना, भैंसासम जी-तोड़ ।
तो उसकी सब आपदा, हटती आशा छोड़।।४।। विपदा की सैना बड़ी, खड़ी सुसज्जित देख । नहीं तजै जो धैर्य को, डरे उसे वे देख ।।५।।
किया न उत्सव गेह में, जब था निजसौभाग्य ।
तब कैसे वह बोलता, हा आया 'दुर्भाग्य' ॥६।। विज्ञ स्वयं यह जानते, विपदागृह है देह । विपदा में पड़कर तभी, बने न चिन्ता गेह ।।७।।
अटल नियम में सृष्टि के, गिनता है जो दुःख ।
उस अविलासी थीर को, बाधा से क्या दुःख ।।८।। वैभव के वर-लाभ में, जिसे न अति आल्हाद । होगा उसके नाश में, क्योंकर उसे विषाद ।।६।।
श्रम दबाब या वेग में, माने जो नर मोद । फैलाते उस धीर की, अरि भी गुण-आमोद ।।१०।।