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जा कुबल काव्य पर
परिच्छेदः 3
संकट में धैर्य 1-जब तुम पर कोई आपदा आ पड़े तो तुम हँसते हुए उसका सामना करो क्योंकि मनुष्य को आपत्ति का सामना करने के लिए सहायता देने में मुस्कान से बढ़कर और कोई वस्तु नहीं है।
2-अनिश्चित मन का पुरुष भी मन को एकाग्र करके जच सामना करने को खड़ा होता है तो आपत्तियों का लहराता हुआ सागर भी दबकर बैठ जाता है।
3-आपत्तियों को जो आपत्ति नहीं समझते, वे आपत्तियों को ही आपत्ति में डालकर वापिस भेज देते हैं।
4.-भैंसे की तरह हर एक संकट का सामना करने के लिए जो जी तोड़कर श्रम करने को तैयार है, उसके सामने विघ्न-बाधा आयेंगी पर निराश होकर अपना सा मुँह लेकर वापिस चली जायेंगी।
5--आपत्ति की एक समस्त सेना को अपने विरुद्ध सुसज्जित खड़ी देखकर भी जिसका मन बैठ नहीं जाता, वाधाओं को उसके पास आने में स्वयं वाधा होती है।
6-सौभाग्य के समय जो हर्ष नहीं मनाते क्या वे कभी इस प्रकार का दुखौना कहते फिरेंगे कि हाय ! हम नष्ट हो गये।
7-बुद्धिमान् लोग जानते हैं कि यह देह तो विपत्तियो का घर है और इसीलिए जब उन पर कोई संकट आ जाता है तो वे उसकी कुछ पर्वाह नहीं करते।
-जो आदमी भोगोपभोग की लालसा में लिप्त नहीं और जो जानता है कि आपत्तियाँ भी सृष्टि-नियम के अन्तर्गत हैं वह वा।। पड़ने पर कभी दुःखित नहीं होता।
9-सफलता के समय जो हर्ष में मग्न नहीं होता, असफलता के समय उसे दुःख से घवसना नहीं पड़ता।
10-जो आदमी परिश्रम के दुःख, दवाब और आवेग को सच्चा सुख समझता है उसके वैरी भी उसकी प्रशंसा करते हैं।