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ज, कुबल काव्य पर
परिच्छंद: ७ भयप्रद कृत्यों का त्याग
1-राजा का कर्तव्य है कि वह दोषी को नापतौल कर ही दण्ड देवे, जिससे कि वह दुवारा वैसा कर्म न करे, फिर भी यह दण्ड सीमा के बाहिर न होना चाहिए।
2-जो अपनी शक्ति को स्थायी रखने के इच्छुक हैं उन्हें चाहिए कि वे अपना शासनदण्ड तत्परतासे चलावें, परंतु उसका आघात कठोर न हो।
3-उस राजा को देखो, जो अपने लोहदण्ड द्वार ही शासन करता है और अपनी प्रजा में भय उत्पन्न करता है । उसका कोई भी मित्र न रहेगा और शीघ्र ही नाश को प्राप्त होगा।
4-जो राजा अपनी प्रजा में अत्याचार के लिए प्रसिद्ध है वह असमय में ही अपने राज्य से हाथ धो बैठेगा और उसका आयुष्य भी घट जायेगा।
___5. जिस राजा का द्वार अपनी प्रजा के लिए सदा बन्द है उसके हाथ में सम्पत्ति ऐसी लगाती है मानों किसी राक्षस के द्वारा रखाई हुई कोई धनराशि हो।
6-जो राजा कोर वचन बोलता है और क्षमा जिसकी प्रकृति में नहीं, वह चाहे वैभवमें कितना ही बढ़ाचढ़ा हो तो भी उसका अंत शीघ्र होगा।
7-कठोर शब्द और सीमातिक्रान्त–दण्ड वे अस्त्र हैं जो सत्ता की प्रतिष्ठा को छिन्न-भिन्न कर देते हैं।
-उस राजा को देखो, जो अपने मंत्रियों से तो परामर्श नहीं करता और अपनी योजनाओं के असफल होने पर आवेश में आ जाता है, उसका वैभव क्रमशः विलीन हो जायेगा।
--समय रहते, जो अपनी रक्षा के साधनों को नहीं देखता उस राजा को क्या कहें ? जब उस पर सहसा आक्रमण होगा तो वह धैर्य खो बैठेगा और पकड़ा जावेगा तथा अन्त में उसका सर्वनाश शीघ्र ही होगा।
10-उस कठोर शासन के सिवाय, जो मूर्ख और चापलूसों के परामर्श पर निर्भर है और कोई बड़ा भारी भार नहीं है जिसके कारण पृथ्वी कराहती है।
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