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जी कुरष काव्य
परिच्छेदः २९
निष्कपट व्यवहार घृणित न देखा चाहते, निज को यदि तुम तात। कपट भरे कुविचार से, तो बच लो दिन-रात ।।१।।
द्रव्य पड़ोसी की सभी, ले लूँगा कर छन ।
मनका यह संकल्प ही, पापों का दृढ़ सा ।।२।। जिस धन की हो आय में, कपटजाल का पाश । वृद्धिंगत चाहे दिखे, पर है अन्त विनाश ।।।३।।
वैभव की भी वृद्धि में, ठगखोरी की चाट ।
ले जाती नर को वहीं, जहाँ विपद की हाट ।।४।। | पर धन के हरणार्थ जो, करे प्रतीक्षा क्रूर । दया नहीं उसके हृदय, प्रेमकथा बहु दूर ।।५।।
छलकर भी पर द्रव्य को, बुझे न जिसकी प्यास । ।
वस्तुमूल्य अनभिज्ञ वह, सुपथ न उसके पास ।।६।। क्षणनश्वर ऐश्वर्य है, जिस मन में यह छाप । नहीं पड़ोसी को वहीं, छलकर लेगा पाप ॥७||
शुद्ध सरलता ज्यों करे, आर्य हृदय में वास ।
चोर ठगों के चित्त में, त्यों ही कपट-निवास ||८|| कपट भिन्न जिस के नहीं, मन में उठे विचार । उस नर पर आती दया, देख पतन-विस्फार ।।६।।
छली पुरुष निज देह का, खोता है अधिकार ।। वारिस बनता स्वर्ग का, सीधा नर साभार।। १०।। .
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