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कुरल काव्य
- कुबल काव्य पर
परिच्छेदः 38
संसार की अनित्यता इससे बढ़कर मोह क्या, अथवा ही अज्ञान । नश्वर को ध्रुव मानना, और न निज पहिचान ||१||
श्री का आना, खेल में जुड़ती जैसी भीड़ ।
श्री का जाना, खेल से हटती जैसी भीड़ ।।२।। ऋद्धि मिली लो शीघ्र ही, करलो कुछ शुभ कार्य । कारण किसी नहीं, अधिक समय यह आर्य ।।३।।
यद्यपि दिखता काल है, सरल तथा निर्दोष ।
पर आरे सम काटता, सबका जीवन कोष ।।४।। शुभ कार्यों का प्राज्ञजन, करो लगे ही हाथ । क्या जाने जिव्हा रुके, कब हिचकी के साथ ।।५।।
कल ही था इस लोक में, एक मनुज विख्यात ।
आज न चर्चा है कहीं, कैसी अद्भुत बात ।।६।। जीवित रहता या नहीं, पल भर भी सन्देह । कोटि कोटि संकल्प का, फिर भी यह मन गेह ।।७।।
खग लगते ही पंख के, उड़ता अण्डा फोड़।
उस सम देही कर्मवश, जाता काया छोड़ ।।६।। निद्रासम ही मृत्यु है, जीना जगना एक । निर्णय ऐसा प्राज्ञवर, करते हैं सविवेक ।।६।।
लोगो ! क्या इस जीव का, निजगृह नहीं विशेष ।। जिससे निन्दित देह में, सहता दुःख अशेष ।। १०।।
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