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कुरल काव्य
परिच्छेदः ५६
अत्याचार
जो शासक अतिदुष्ट है, प्रजावर्ग के बीच । वह भूपति नृप ही नहीं, घातक से भी नीच ||१|
निर्दय शासक के लगें, ऐसे मीठे बोल । डाकू जैसे बोलता, देदे जो हो खोल ||२||
जो नरेश देखे नहीं, प्रतिदिन शासनचक्र | राजश्री इस दोष से होती उससे वक्र ||३||
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विचलित हो जो न्याय से, उस नृप पर बहुलोक 1 राज्य सहित वह मूढ़वी, खोता धन अस्तोक ||४|
त्रस्त प्रजा जब दुःख से, रोती आँसू ढार 1 वह जाती जब भूप की, सारी श्री उस धार ||५|
शासन यदि हो न्यायमय, तो नृपकी वरकीर्ति । न्याय नहीं यदि राज्य में, तो उसकी अपकीर्ति ॥६॥
विनावृष्टि नभके तले, पृथ्वी का जो हाल । निर्दयनृप के राज्य में, वही प्रजा का हाल ॥ ७
अन्यायी के राज्य में, दुःखित सब ही लोग । पर कुदशा भोगें अधिक, धनिकवर्ग के लोग ॥८॥
न्यायधर्म को लाँघ कर चलता नृप जब चाल । स्वर्गनीर वर्षे बिना पड़ता तब दुष्काल ॥६॥
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तजदे शासन न्यायमय, नृप करके अज्ञान । पय सूखे तब धेनु का, द्विज भूलें निज ज्ञान ||१०||
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