________________
करम काव्य
जा कुबल काव्य -
परिच्छेदः ४९.
कुसंग से दूर रहना उत्तम नर दुःसंग से, रहें सदा शमशीन । ओछे पर ऐसे मिलें, यथा कुटुम्बी मीत ।।१।।
बहता जैसी भूमि में, बनता वैसा नीर ।
संगति जैसी जीव की, वैसा ही गुणशील ।।२।। मस्तक से ही बुद्धि का, है सम्बन्ध विशेष । पर यश का सम्बन्ध तो, गोष्ठी पर ही शेष ।।३।।
नरस्वभाव का बाह्य में, दिखता मन में बास 1
पर रहता उस वर्ग में, बैठे जिसके पास ।।४।। चाहे मन की शुद्धि हो, चाहे कर्मविशुद्धि । इन सबका पर मूल है, संगति की ही शुद्धि ।।५।।
संतपुरुष को प्राप्त हो, संतति योग्यविशेष ।
और सदा फूले फले, जब तक वय हो शेष ।।६।। नर की एक अपर्व ही, निथि है मन की शुद्धि । सत्संगति देती तथा, गौरव गुणमय बुद्धि ।।७।।
यद्यपि होते प्राज्ञजन, स्वयं गुणों की खान ।
सत्संगति को मानते, फिर भी शक्ति महान ।।८।। पुण्यात्मा को स्वर्ग में, लेजाता जो धर्म । मिलता वह सत्संग से, करके उत्तम कर्म ।।६।।
, परमसखा-सत्संग से, अन्य न कुछ भी और ।
और अहित दुःसंग से,जो देखो कर गौर ।।१०।।
200