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जा, कुवर काव्य पर
पारिच्छेदः ।
योग्य पुरुषों की मित्रता करते करते धर्म जो, हो गये वृद्ध उदार । उनका लेलो प्रेम तुम, करके भक्ति अपार ।। १।।
आगे के या हाल के, जो हैं दुःख अथाह ।
से रक्षक के मा. ब्बलो सदा रत्साह ॥२।। जिसे मिली वर मित्रता, पा करके सद्भाग्य । निस्संशय उस विज्ञ का, हरा भरा सौभाग्य ।।३।।
अधिकगुणी की मित्रता, जिसे मिली कर भक्ति ।
उसने एक अपूर्व ही, पाली अद्भुत शक्ति ।।४।। होते हैं भूपाल के, मंत्री लोचनतुल्य । इससे उनको राखिए, चुनकर ही गुणतुल्य ।।५।।
सत्पुरुषों से प्रेममय, जिसका है व्यवहार ।
उसका वैरी अल्प भी,कर न सके अपकारा।६।। झिड़क सकें ऐसे सखा, प्रति दिन जिस के पास । गौरव के उस गेह में, करती हानि न बास ।।७।।
मंत्री के जो मंत्रसम, वचन न माने भूप ।
बिना शत्रु उसका नियत, क्षय ही अन्तिम रूप ।।८।। जैसे पूंजी के बिना, मिले न धन का लाभ । प्राज्ञों की प्रतिभा बिना, त्यों न व्यवस्थालाम ।।६।।
जैसे अखिल विरोध है, बुद्धिहीनता दोष । सन्मैत्री का त्याग पर, उससे भी अतिदोष।।१०।।
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