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कुरल काव्य
परिच्छेदः ५४ निश्चिन्तता से बचाय
अमित कोप से निंद्य वह, बेखटकी हैं तात । अमिट अल्प सन्तोष से, मन में जो जमजात ||१||
जैसे दुष्ट दरिद्रता, करती प्रतिभानाश । वैसे ही निश्चिन्तता करती वैभवनाश ||२||
कभी नहीं निश्चिन्त को होती धन की आय । ऐसा करते अन्त में, निर्णय सब आम्नाय ||३||
दुर्गाश्रय का कौन सा कायर को उपयोग । बहुसाधन से सुस्त के, क्या बढ़ते उद्योग ||४||
निजरक्षा के अर्थ भी, करता सुस्त प्रमाद । पीछे संकटग्रस्त हो, करता वही विषाद १५॥ पर से शुभ वर्ताव को सजग मनुज यदि तात । भूतल में फिर कौन है, इससे बढ़कर बात || ६ || ध्यान लगा जो चित्त से, कर सकता सब कार्य । नहीं अशक्य उस आर्य को, भी कार्य ।। ७ ॥ भू में कुछ विज्ञप्रदर्शित कार्य को करे तुरंत ही भूप । शुद्धि न होगी अन्यथा, जीवन भर अनुरूप ||८||
सुस्ती का जब चित्त में, होवे भी भान कुछ मिटे उसीसे लोग जो, उनका कर तब ध्यान ||६||
रखता है निज़ ध्येय पर, दृष्टि सदा जो आर्य । सहज सिद्धि उसके यहाँ मनचाहे सब कार्य ||१०||
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