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ज कुबल कार
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परिच्छेदाः 349
त्याग
प्रण लेकर जिस वस्तु का, कर देता नर त्याग । मानो उसके दुःख से, बचता वह बेलाग ।।१।।
आकर है सुखरत्न का, सागर जैसा त्याग ।
चिर सुख की यदि कामना, करो सदा तो त्याग।।२।। जीतो पाँचों इन्द्रियाँ, जिनमें भरा विकार । प्रिय से छोड़ो मोह फिर, त्याग यही क्रमवार ।।३।।
सर्व परिग्रह-त्याग ही, आर्षव्रतों में सार ।
तजकर लेना एक भी, बन्धन का ही द्वार ।।४।। जब मुमुक्षु की दृष्टि में निज-तनु भी है हेय । तब उस को क्यों चाहिए, बन्धन भरे विधेय ११५।।
'मेरा' 'मैं' के भाव तो, स्वार्थ-गर्व के थोक ।
जाता त्यागी है वहाँ, स्वर्गोपरि जो लोक ।।६।। प्रिय संयम जिसको नहीं, फंसकर तृष्णाजाल । मुक्त न होगा दुःख से, घिरा रहे बेहाल |७||
मुक्ति पथिक वह एक जो, विषयविरक्त अतीव ।
अन्य सभी तो मोह में, फँसे जगत के जीव।।८।। लोभ-मोह को जीतते, पुनर्जन्म ही बन्द । फँसते वे भ्रमजाल में, कटें न जिनके फन्द ।।६।।
शरण गहो उस ईश का, जिसने जीता मोह । आश्रय लो उस देव का, जिससे कटता मोह ।।१०।।
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