________________
- कुल काव्य र परिच्छेदः २८
धूर्तता वंचक के व्यवहार से, उसके भौतिक अंग । मन ही मन हँसते उसे, देख छली का ढंग ||१||
दिव्यदेह किस काम की, नर की भरी प्रभाव ।
जानमान जिसके हृदय, कपट-भरे यदि भाव ।।२।। ऋषियों का जो वेश धर, बनता कातर दास । सिंह खाल को ओढ़ खर, चरता वह है घास ।।३।।
धर्मात्मा का रूप रख, जो नर करता पाप ।
झाड़ी भीतर व्याध सा, बैठा वह ले चाप ।।४।। बाह्य प्रदर्शन के लिये, दम्भी के सब काम । रोता पर वह अन्त में, सोच बुरे निज काम ।।५।।
धूर्त नहीं है त्यागता, मनसे कोई पाप ।
पर निष्ठुर रचता बड़ा, त्यागाडम्बर आप ।।६।। गुंजा यद्यपि रूपयुत, फिर भी दिखती श्याम । वैसे सुन्दर धूर्त भी, भीतर दिखता श्याम ।।७।।
शुद्ध हृदय जिनके नहीं, ऐसे लोग अनेक ।
पर तीर्थों में स्नान कर, फिरें बनें सविवेक।।८।। शर सीधा होता तथा, 'घक तंबूरा आर्य । इससे आकृति छोड़कर, नर के देखो कार्य 11६।।
जिस बुध ने त्यागे अहो, लोकनिन्ध सब काम । जटाजूट अथवा उसे, मुण्डन से क्या काम ।।१०।।
164