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न कुल काव्य पर
परिच्छेदः १६ .
चुगली से घृणा “खाता यह चुगली नहीं", पर की ऐसी बात । सुनकर खल भी फूलता, जिसे न नीति सुहात ।।१।।
परहित तज, पर का अहित, करना निन्दित काम ।
मधुमुख पर उससे बुरा, पीछे निन्दा धाम ।।२।। मृषा, अधम जीवन बुरा, उससे मरना श्रेष्ठ । कारण एसी मृत्यु से, बिगड़े कार्य - अंग्छ ।।३।।
.. मुख पर ही गाली तुम्हें, दीहो बिना विचार ।
तो भी उसकी पीठ पर, बनो न निन्दाकार ।।४।। मुख से कितनी ही भली, यद्यपि बोले बात । . पर जिहा से चुगल का, नीच हृदय खुल जात ।।५।।
निन्दाकारी अन्य के, होगे तो स्वयमेव ।
खोज खोज चिल्लायेंगे, वे भी तेरे ऍव 11६।। मैत्रीरस-अनभिज्ञ जो, उक्ति माधुरी हीन । वाह ही बोकर फूट को, करता तेरह-तीन ।।७।।
खुल कर करते मित्र की, जो अकीर्ति का गान ।
वे कब छोड़ें शत्रु का, अपयश का व्याख्यान ।। ८11॥ धैर्य सहित उर में सहे, निन्दक पादप्रहार । धर्म ओर फिर फिर तके, भू, उतारवे भार ।।६।।
अन्य मनुज के दोष सम, जो देखे निज दोष । उस समान कोई नहीं, भू-भर में निर्दोष ।।१०।।
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