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ना कुबल काव्य परपरिच्छेदः २० व्यर्थ-भाषण
अर्थ शून्य जिसके वचन, सुन उपजे उद्वेग ।। उस नर के सम्पर्क से, बचते सभी सवेग ।।१।।
मित्रों को भी क्लेश दे, उससे अधिक निकृष्ट ।
गोष्ठी में जो व्यर्थ का, भाषण देता धृष्ट ।।२।। दम्भभरा निस्सार जो, भाषण दे निश्शंक । घोषित करे अयोग्यता, मानो प्रज्ञारंक ।।३।।
कर प्रलाप बुधवृन्द में, लाभ न कुछ भी हाथ ।।
जो भी अच्छा अंश है, खोता वह भी साथ ।।४।। बकवादी यदि योग्य हो, तो भी दिखे अयोग्य । गौरव से वह रिक्त हो, मान न पाता योग्य ।।५।।
रुचि जिसकी बकवाद में, मानव उसे न मान ।
आवश्यक ही कार्य लें, कचरा सम धीमान ।।६।। उचित जचे तो बोल ले, चाहे कर्कश बात । वृथालाप से तो वही, दिखती उत्तम तात ।।७।।
तत्त्वज्ञान विचार में, जिनका मन संलग्न ।
वे ऋषिवर होते नहीं, क्षणभर विकथा-मग्न ।। ना ! जिनकी दृष्टि विशाल वे, प्राज्ञोत्तम गुणथाम ।। कभी न करते भूलकर, बकवादी के काम ।।६।।
भाषण के जो योग्य हो, वह ही बोलो बात । और न उसके योग्य जो, तज दीजे वह भात ।। १०।।
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