________________
कुभव काव्य र
परिच्छेदः २६
निरामिष-जीवन मांसवृद्धि के हेतु जो, मांस चखे रख चार । उस नर में संभव नहीं, करुणा का सद्भाव ।।१।।
द्रव्य नहीं जैसे मिले, व्यर्थव्ययी के पास ।
आमिषभोजी में नहीं, वैसे दयाविकास ।।२।। जो चखता है मांस को, उसका हृदय कठोर । डाकू जैसा शस्त्रयुत, झुके न शुभ की और ।।३।।
निस्संशय है क्रूरता, करना जीव-विधात ।
पर चलना तो मांस का, घोर पाप की बात ।।४।। मांस त्याग से ही रहे, जीवन पूर्ण ललाम । यदि इससे विपरीत तो, बन्द नरक ही धाम ।।५।।
खाने की ही कामना, करें नहीं यदि लोग ।
आमिष-विक्रय का नहीं, आवे तो कुछ योग ।।६।। | एक बार ही जान ले, निज-सम ही परकष्ट । तो इच्छा कर मांस की, करे न जीवन भ्रष्ट ।।७।।
जो नर मिथ्याबुद्धि को, छोड़ बना सज्ञान ।
लाश नहीं वह खायगा, तन में रहते प्राण ।।८।। मांस तथा परघात से, जिसको घृणा महान । कोटि यज्ञ का फल उसे, कहते हैं विद्वान ।।६।।
आमिष-हिंसा से घृणा, जो रखता मतिमान । हाथ जोड़ उसका सभी, करते हैं सम्मान ।। १०।।
160)