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- कुबल काव्य और-- परिच्छेदः 22
परोपकार बदले की आशा बिना, सन्त करें उपकार । बादल का बदला भला, क्या देता संसार ।।१।।
बहुयलों से आर्य जो, करते अर्जित अर्थ ।
वह सब होता अन्त में, परहित के ही अर्थ ||२|| हार्दिकता से पूर्ण जो, होता है उपकार । मू में या फिर स्वर्ग में, उस सम वस्तु न सार ।।३।।
योग्यायोग्य विचार ही, नर का जीवित रूप ।
होता है विपरीत पर, मृतकों सा विद्रूप ।।४।। पूर्ण लबालब जो भरा, ग्राम-सरोवर पास । उस सम शोभा भव्य की, जिसमें प्रेमनिवास 11५।।
ग्राम वृक्ष के फूल-फल, भोगों जैसे लोग ।
उन्नत-मन के द्रव्य का, वैसा ही उपभोग 11६।। उस तरु के ही तुल्य है, उत्तम नर की द्रव्य ।। औषधि जिसके अंग हैं, सदा हरा वह भन्य
दुःखस्थिति में भी सुधी, रखता । . .
पर, वत्सल तजता नहीं, करना पर-उपकार ।।। उपकारी निजको तभी, माने धन से हीन । याचक जब ही लौटते, होकर आशाहीन ॥६।।
होवे यद्यपि नाश ही, पर उत्तम उपकार । । बिककर बन परतंत्र तू, फिर भी कर उपकार।। १०।।
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