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कुषल काव्य
परिच्छेदः 93 ਸ਼ਕਸ
1- आत्मा - संयम से स्वर्ग प्राप्त होता है, किन्तु असंयत इन्द्रियलिप्सा अपार अंधकार पूर्ण नरक के लिए खुला हुआ राजपथ है।
2- आत्म-संयम की रक्षा अपने खजाने के समान ही करो, कारण उससे बढ़कर इस जीवन में और कोई निधि नहीं है।
3- जो पुरुष ठीक तरह से समझ बूझ कर अपनी इच्छाओं का दमन करता है, उसे मेधादिक सभी सुखद वरदान प्राप्त होंगे।
4- जिसने अपनी समस्त इच्छाओं को जीत लिया है और जो अपने कर्तव्य से पराड़, मुख नहीं होता, उसकी आकृति पहाड़ से भी बढ़कर प्रभावशाली होती है।
5- विनय सभी को शोभा देती है, पर पूरी श्री के साथ श्रीमानों में ही खुलती है।
6- जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को उसी तरह अपने में खींचकर रखता है, जिस तरह कछुआ अपने हाथ-पाँव को खींचकर भीतर छुपा लेता है, उसने अपने समस्त आगामी जन्मों के लिए खजाना जमाकर रखा है।
7- और किसी को चाहे तुम मत रोको, पर अपनी जिल्हा को अवश्य लगाम लगाओ, क्योंकि बेलगाम की जिव्हा बहुत दुःख देती है । 8- यदि तुम्हारे एक शब्द से भी किसी को कष्ट पहुँचता है तो तुम अपनी सब मलाई नष्ट हुई समझो।
9- आग का जला हुआ तो समय पाकर अच्छा हो जाता है, पर वचन का घाव सदा हरा बना रहता है।
10- उस समय को देखो जिसने विद्या और बुद्धि प्राप्त कर ली है। जिसका मन शान्त और पूर्णत वश में है, धार्मिकता तथा अन्य सब प्रकार की भलाई उसके घर उसका दर्शन करने के लिए आती हैं।
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