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- कुबल काव्य र--- परिद ४
सदाचार लोकमान्य होता मनुज, यदि आचार पवित्र । इससे रक्षित राखिए, प्राणाधिक चारित्र ।।१।।
प्रतिदिन देखो प्राज्ञजन, अपना ही चारित्र ।
कारण उस सम लोक में, अन्य नहीं दृढमित्र ।।२।। सदाचार सूचित करे, नर का उत्तम वंश । बनता नर दुष्कर्म से, अधम-श्रेणि का अंश ।।३।।
भूले आगम प्राज्ञगण, फिर करते कण्ठस्थ ।
पर चूका आचार से, होता नहीं पदस्थ ।।४।। डाहभरे नर को नहीं, सुख-समृद्धि का भोग । वैसे गौरव का नहीं, दुष्कर्मी को योग ॥५।।
नहीं डिगें कर्तव्य से, दृढ़प्रतिज्ञ वरवीर ।
कारण डिगने से मिलें, दुःख-जलधि गम्भीर ।।६।। सन्मार्गी को लोक में, मिलता है सम्मान । दुष्कर्मी के भाग्य में, हैं अकीर्ति अपमान ॥७॥
सदाचार के बीज से, होता सुख का जन्म ।
कदाचार देता तथा, विपदाओं को जन्म ।।८।। विनयविभूषित प्राज्ञजन, पुरुषोत्तम गुणशील । कभी न बोले भूलकर, बुरे वचन अश्लील ।।६11
यद्यपि सीखें अन्य सब, पाकरके उपदेश । पर सुमार्ग चलना नहीं, सीखें मूर्खजनेश ।।१०।।
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