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ज, कुभल काव्य परपरिचदः
गृहस्थाश्रम आश्रम यद्यपि चार हैं, उनमें धन्य गृहस्थ । मुख्याश्रय सबका वही, इससे श्रेष्ठ गृहस्थ 11911
मृतकों का सच्चा सखा, दीनों का आधार ।
है अनाथ का नाथ वह, गृही दया साकार ।।२।। देव अतिथि पूजन सदा, स्वोन्नति निज जन भर्म । रक्षण पूर्वज कीर्ति का, पाँच गृही के कर्म ।।३।।
दान बिना भोजन तथा, रुचै न निन्दा अंश ।
बीजशून्य होता नहीं, उसका कभी सुवंश ।।४।। धर्मराज्य के साथ में, जिसमें प्रेम-प्रवाह । तोष-सुधा उस गेह में, पूर्ण फलें सब चाह ।।५।।
पालन यदि करता रहे, मनुज गृही के कर्म ।
आवश्यक क्यों हों उसे, अन्याश्रम के धर्म ।।६।। जो गृहस्थ करता सदा, धर्म-सुसंगत कार्य । वह मुमुक्षुगण में कहा, परमोत्तम है आर्य ।।७।।
साधक जो पर कार्य का, तथा उदारचरित्र ।
है गृहस्थ वह सत्य ही, ऋषि से अधिक पवित्र ।।८।। धर्म तथा आचार का, है सम्बन्ध विशेष । गृहजीवन के साथ में, भूषण कीर्ति विशेष ||६||
___जिस विधि करना चाहिए, करे उसी विधि कार्य । - है गृहस्थ वह देवता, कहते ऐसा आर्य ।।१०।।
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