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कुशल काव्य परपरिच्छेदः ।
अतिथिसत्कार अतिथियज्ञ की साधना, करने को ही आर्य 1 गृह में करते कष्ट से, धनसंचय का कार्य ।।१।।
अतिथिदेव यदि भाग्यवश, गृह में हो साक्षात् ।
तो पीना पीयूष भी, उन बिन योग्य न तात ।।२।। अतिथिदेव की भक्ति में, जिसको नहीं प्रमाद । उस नर पर टूटें नहीं, संकट, भीति, विषाद ।।३।।
योग्यअतिथि का प्रेम से, स्वागत का यदि नाद ।
तो लक्ष्मी को वास का, उसके घर आल्हाद ।।४।। पूर्व अतिथि, फिर शेष जो, जीमे प्रेम समेत । आवश्यक होता नहीं, बोना उसको खेत ।।५।।
एक अतिथि को पूज जो, जोहे पर की बाट ।
बनता वह सुर-वर्ग का, सुप्रिय अतिथिसम्राट ।।६।। महिमा तो आतिथ्य की, कहनी कठिन अशेष । विधि आदिक के भेद से, उसमें अन्य विशेष ।।७।।
दान बिना पछतायगा, लोभी आठों याम ।
मृत्यु समय यह सम्पदा, हाय न आवे काम ।।८।। अतिथि-भक्ति करता नहीं, होकर वैभवनाथ । पूर्णदरिद्री सत्य वह, मूर्खशिरोमणि साथ ।।६।।
पुष्पअनीचा का मधुर, सूंघे से मुरझाय । अतिथि हृदय तो एक ही, दृष्टि पड़े मर जाय ।। १०।। ।
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