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चेतना की क्रीडाभूमि : अप्रमाद नहीं है। बोध न होने का भी एक कारण है । वह कारण है-प्रमाद । यह आवरण हमें अपनी संपदा से परिचित नहीं होने देता । प्रमाद सघन आवरण है। लोहावरण है। वह हमें अपनी संपदा से विलग किए हुए है। एक ओर हम हैं और दूसरी ओर है हमारी संपदा का बोध । बीच में प्रमाद का सघन आवरण है, प्रमाद का लोहावरण है। हमारा उससे संबंध टूट-सा गया है।
अनन्त चेतना और अनन्त शक्ति। चेतना स्पष्ट नहीं होती है तो शक्ति स्पष्ट नहीं होती और शक्ति स्पष्ट नहीं होती है तो चेतना स्पष्ट नहीं होती। दोनों एक-दूसरे से संबंधित हैं। दोनों जुड़े हुए हैं। चेतना का विकास होगा तो शक्ति का विकास होगा और शक्ति का विकास होगा तो चेतना का विकास होगा। चेतना स्पष्ट नहीं है इसीलिए यह बोध नहीं हो रहा है कि हमारे में अनन्त शक्ति है। हम अपनी शक्ति से परिचित नहीं हैं, इसलिए चेतना का उपयोग नहीं कर पाते । हम नहीं जान पाते कि हमारी चेतना कितनी है । दोनों का, चेतना और शक्ति का, संबंध टूट जाता है। दोनों के बीच में एक आवरण आ गया, एक दीवार खड़ी हो गई। दोनों बिछुड़ गए। एक इस ओर रह गया और दूसरा उस ओर । दोनों एक-दूसरे से अपरिचित जैसे हो गए।
साधना का सबसे महत्त्वपूर्ण चरण है-चेतना का शक्ति के साथ योग करना । एक को दूसरे से जोड़ना । वास्तव में जहां शक्ति और चेतना की समन्विति है वहीं योग की साधना है । यह समन्विति तब संभव होती है जब प्रमाद का आवरण हट जाता है, टूट जाता है ।
प्रमाद का आवरण बहुरूपी है । वह अनेक रूपों में प्रस्तुत होता है। वह इतना सघन है कि कोई भी उसमें से झांक नहीं सकता। प्रमाद का रूप है-मादकता। वह चेतन को मादक बना देता है। जैसे मदिरा व्यक्ति में मादकता ला देती है, वैसे ही प्रमाद व्यक्ति को मादक बना देता है। प्रमाद मदिरा है। उसमें बहुत मादकता है । जब प्रमाद छाता है तब चेतना लुप्त हो जाती है, शक्ति भी लुप्त हो जाती है, दब जाती है।
प्रमाद का एक रूप है-निद्रा। आदमी सोता है, साथ-साथ शक्ति और चेतना भी सो जाती है।
प्रमाद का एक रूप है-कषाय की उत्तेजना । क्रोध आता है, चेतना लुप्त हो जाती है, विवेक भी लुप्त हो जाता है।
प्रमाद का एक रूप है-अनुत्साह । धर्म के प्रति, साधना के प्रति
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