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चेतना की क्रीडाभूमि : अप्रमाद
३६. व्यक्ति की प्रतिमा का मन-ही-मन निर्माण करना होगा। उसे ऐसे व्यक्ति को ध्येय बनाना होगा जो कायबल में उत्कृष्ट है। बाहुबली कायबल के प्रतीक हैं। साधक उन्हें अपना ध्येय बनाता है। उन्हें ध्येय बनाकर साधक ध्यान करता है। ध्येय है बाहुबली और साधक है ध्याता । यह संभेद ध्यान है। ध्याता और ध्येय के बीच संभेद है, दूरी है । किन्तु जैसे-जैसे ध्यान की पटुता बढ़ती जाएगी, उद्देश्य फलित होता जाएगा। फिर ध्येय और ध्याता अलग नहीं रहेंगे। उनमें दूरी नहीं रहेगी । आप स्वयं बाहुबली बन जाएंगे । इतना अभेद सध जाएगा कि आप स्वयं ध्येय के रूप में परिणत हो जाएंगे। स्वयं बाहुबली बन जाएंगे।
इस स्थिति तक पहुंचने के लिए आप शिथिलीकरण करें, कायोत्सर्ग करें। शरीर को शून्य कर दें, मृतवत् कर दें। स्वयं ध्येयमय बनने का प्रयत्न करें, ध्येय का अनुभव करें। आपकी भीतर की शक्ति परिणमन करना शुरू कर देगी। एक दिन अनुभव होगा कि शरीर में बहुत बड़ी शक्ति उत्पन्न हो रही है और आप दृढ़काय वाले, कायबली बनते जा रहे हैं। यह छोटा-सा सूत्र है :
० ध्येय का निर्णय करें। ० ध्येय का आकार बनाएं। ० ध्यान की ऊर्जा को एक ही दिशा में प्रवाहित करें। ० भेद से अभेद को साधे, तन्मूर्ति बन जाए।
यह सूत्र है शक्तियों के विकास का। शक्ति चाहे कायिक हो, वाचिक हो या मानसिक हो । ऋद्धियों और लब्धियों के विकास का यही सूत्र है। कभी-कभी बिना प्रयत्न के भी किसी एक दिशा में विकास होता है किन्तु वह कोई नियम नहीं बनता। ऊर्जा को एक दिशागामी बनाने से ही विकास की संभावना होती है, यह नियम है।
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