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अध्यात्म का रहस्य-सूत्र
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लिए लेश्या ध्यान आवश्यक है। यद्यपि लेश्या स्वयं तरंग है किन्तु निस्तरंग की दिशा में प्रस्थान के लिए लेश्या ध्यान बहुत सहयोग करता है। हम इसका उचित मूल्यांकन करें।
हम श्वास-प्रेक्षा के द्वारा अपने श्वास पर नियंत्रण करते हैं । हम शरीर-प्रेक्षा के द्वारा शरीर के स्पंदनों को देखते हैं, उनके अनित्य स्वभाव को देखते हैं, अनित्य अनुप्रेक्षा में उतरते हैं। फिर हम अनित्य से परे किसी नित्य की खोज के लिए प्रस्थान करते हैं। हमारी यात्रा और आगे बढ़ती है। हम चैतन्य केन्द्रों की प्रेक्षा के द्वारा उस नए आयाम का उद्घाटन करते हैं जो चैतन्य केन्द्रों के माध्यम से कभी-कभी अपना प्रकाश डालता है।
हमारे शरीर में तरंगातीत आत्मा की अभिव्यक्ति के दो मुख्य स्थान हैं-एक मस्तिष्क और दूसरा चैतन्य-केन्द्र । दो महत्त्वपूर्ण द्वार हैं जिनके माध्यम से भीतर में छिपी हुई ज्योति कभी-कभी बाहर भी अपना प्रकाश डालती है। वह ज्योति भीतर ही छिपी रहती है, फिर भी उसकी कुछ रश्मियां हम तक पहुंच जाती हैं । जो साधक चैतन्य-केन्द्रों पर ध्यान करता है, वह उस ज्योति को अनायास ही उपलब्ध हो जाता है। जब एक बार भी वह उसे उपलब्ध हो जाता है तब चाहे कितनी ही तरंगें उसे घेरे रहें, कितनी ही बाधाएं डालें, वह कभी विचलित नहीं होता। जो एक बार भी तरंगातीत अवस्था का अनुभव कर लेता है वह अनुभव कभी समाप्त नहीं होता । जिसे एक बार सम्यक् दर्शन उपलब्ध हो गया, फिर उसके विकास को कोई नहीं रोक सकता। थोड़ी-बहुत बाधा डाली जा सकती है, पर उसके आगे बढ़ने वाले चरणों को नहीं रोक सकता। अनुप्रेक्षा के द्वारा हम वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानें । पदार्थ के अयथार्थ स्वरूप का बोध मूर्छा ही मूर्छा पैदा कर रहा है और मूर्छा का जाल इतना सघन हो जाता है कि हम उसके पार देख नहीं पाते। अनुप्रेक्षा के द्वारा ही इस मूर्छा के चक्रव्यूह को तोड़ा जा सकता है।
तरंगातीत अवस्था को प्राप्त करने के पांच साधन हैं१. श्वास प्रेक्षा। २. शरीर प्रेक्षा। ३. अनुप्रेक्षा। ४. लेश्या ध्यान । ५. कायोत्सर्ग ।
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