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३०. अध्यात्म और व्यवहार
अध्यात्म के स्तर पर जीने वाले व्यक्ति का व्यवहार और व्यवहार के स्तर पर जीने वाले व्यक्ति का व्यवहार भिन्न होता है । व्यवहार से मुक्त कोई भी नहीं हो सकता । जो शरीरधारी है वह व्यवहार करता है । व्यवहार के बिना वह जी नहीं सकता, उसका जीवन चल नहीं सकता । किन्तु दोनों का व्यवहार बहुत भिन्न होता है । आचारांग सूत्र का कथन है कि आध्यात्मिक व्यक्ति को अन्यथा व्यवहार करना चाहिए । अन्यथा व्यवहार की भूमिका पर जीने वाला जैसे व्यवहार करता है, वैसे व्यवहार अध्यात्म की भूमिका पर जीने वाले को नहीं करना चाहिए, किन्तु उसे भिन्न प्रकार से व्यवहार करना चाहिए, अन्यथा व्यवहार करना चाहिए । हम 'अन्यथा' शब्द को समझें । इसके तात्पर्य को समझें । व्यावहारिक शक्ति का व्यवहार क्रियात्मक नहीं होता, वह प्रतिक्रियात्मक होता है । वह सोचता है-उसने मेरे प्रति ऐसा व्यवहार किया तो मैं भी उसके प्रति ऐसा ही व्यवहार करूं । यह क्रियात्मक व्यवहार नहीं, प्रतिक्रियात्मक व्यवहार है । ऐसे व्यक्ति में कर्त्तव्य की स्वतंत्र प्रेरणा नहीं होती और कत्तंव्य का स्वतंत्र मूल्य भी नहीं होता । उसका कर्त्तव्य स्व-संकल्प से प्रेरित नहीं होता, वह होता है दूसरों से प्रेरित ।
वर्तमान के आचारशास्त्रियों और दार्शनिकों ने आचार के मूल्य की मीमांसा में इस प्रश्न पर बहुत चर्चा की है कि हमारे कर्त्तव्य की प्रेरणा और हमारे कर्त्तव्य का स्वरूप क्या होना चाहिए ? प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने कहा - " कर्तव्य के लिए कर्त्तव्य होना चाहिए, न दया के लिए, न अनुकंपा के लिए और न दूसरों का भला करने के लिए। ये सब नैतिक कर्म के हामी नहीं हैं और उससे संबंद्ध भी नहीं है । केवल मनुष्य का स्वतंत्र संकल्प उसका स्वलक्ष्य मूल्य है । इसलिए कर्त्तव्य के लिए ही हमारा कर्त्तव्य होना चाहिए ।"
कर्तव्य के लिए कर्त्तव्य की यह बात बहुत ही मूल्यवान है । यह क्रियात्मक बात है, प्रतिक्रियात्मक नहीं । कोई व्यक्ति दया का पात्र है, उस
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