Book Title: Kisne Kaha Man Chanchal Hain
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 329
________________ किसने कहा मन चंचल है ये पांचों प्रेक्षा ध्यान के मौलिक आधार हैं। इन साधनों का सम्यक उपयोग होने पर तरंगातीत अवस्था प्राप्त हो सकती है। इसमें अभ्यास की प्रधानता है। दो-चार दिन के अभ्यास से कुछ नहीं बनता । लंबा और सघन अभ्यास ही सफलता प्राप्त करा सकता है। आप श्वास-संयम का अभ्यास करेंगे तो अनुभव होगा कि शरीर हल्का होता जा रहा है । जब शुद्ध लेश्या का ध्यान होगा तो शरीर हल्का होगा। उसे भारी बनाने वाली हैं अशुद्ध लेश्याएं। इन अशुद्ध लेश्याओं के स्पर्श इतने रूखे हैं कि उनसे शरीर भारी बन जाता है। शुद्ध लेश्याओं का स्पर्श मृदु होता है। इससे भारहीनता का अनुभव होता है । लेश्याओं के आधार पर शरीर की गंध बदल जाती है। महावीर के शरीर से पद्म की गंध आती थी। यह यथार्थ बात है। जो वीतराग की स्थिति में चला जाता है, उसके शरीर की गंध पद्म जैसी हो जाती है। शुद्ध लेश्याएं सुगंध पैदा करती हैं और अशुद्ध लेश्यायें दुर्गंध । बुरे विचार करने वाले व्यक्ति के शरीर से दुर्गन्ध निकलती है और अच्छे विचार करने वाले व्यक्ति के शरीर से सुगन्ध फूटती है । गंध के द्वारा जाना जा सकता है कि व्यक्ति अच्छे विचार वाला है या बुरे विचार वाला । मुंह का रस कभी खड़ा हो जाता है, कभी मीठा हो जाता है और कभी कड़वा हो जाता है। सामान्यतः इसका कारण है-वात, पित्त और कफ । हमें यह जान लेना चाहिए कि वात, पित्त और कफ भी हमारे विचारों से प्रभावित होते हैं। जब पित्त का प्रकोप होता है तब क्रोध अधिक आता है । जब वायु का विकार बढ़ता है तब विचारों की उधेड़बुन बढ़ती है, संकल्प-विकल्प बढ़ते हैं। जब कफ का प्रकोप होता है तब वात, पित्त और कफ विचारों को प्रभावित करते हैं और विचारों से प्रभावित होते हैं। लेश्या ध्यान की अन्तिम बात है-कायोत्सगं । शरीर की सारी तरंगों को समेटने, मन की तरंगों को समेटने, बुरे विचारों को निष्क्रिय बनाने में कायोत्सर्ग की प्रमुख भूमिका रहती है। हम सभी साधनों का प्रयोग कर उस तरंगातीत स्थिति का अंकन कर सकते हैं, उसकी झांकी पा सकते हैं। अब हमें ही यह निर्णय करना है कि क्या हमें तरंग की ही यात्रा करनी है या तरंगातीत के लिए अपना चरण आगे बढ़ाना है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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