________________
अध्यात्म और व्यवहार
३२१
वे सितार बजा रहे थे। दोनों ओर के पौधों में संवेदना जागी और वे सब संगीत के साथ-साथ इधर-उधर डोलने लगे, झुकने लगे। जो पौधे दूर थे, जहां संगीत की ध्वनि पहुंच नहीं रही थी, वे पौधे ज्यों के त्यों खड़े ही रहे । यह देखकर निष्कर्ष निकाला गया कि जो पौधे निकट थे, उनमें संवेदनात्मक भाव इतना प्रबल हो गया कि वे सब सितार की लय के साथ-साथ झूमने लग गए ।
बच्चों के प्रति भी संवेदनात्मक व्यवहार ही अधिक कार्यकर होता है, ज्ञानात्मक व्यवहार कार्यकर नहीं होता । चेतना की भूमिका में इन्द्रियों की तुलना बच्चों से की जा सकती है। त्वचा, जिह्वा और नाक से होने वाली अनुभूति संवेदनात्मक ही होती है । आंख और कान से ज्ञानात्मक प्रतीति होती है । किन्तु इन सभी इन्द्रियों के साथ भीतर से प्रवाहित होने वाली प्रियता और अप्रियता की धारा जुड़ती है और संवेदना प्रभावित हो जाती है | आध्यात्मिक व्यवहार करने वाला प्रियता और अप्रियता से प्रभावित नहीं होता । वह जिस इन्द्रिय का जो विषय है उसे जान लेता है या उसका संवेदन कर लेता है, इससे आगे कुछ भी नहीं करता । कान से शब्द सुना और उसका अर्थ जान लिया । यह ज्ञानात्मक व्यवहार है । प्रिय शब्द सुना और मन राग से भर गया । अप्रिय शब्द सुना और मन द्वेष से भर गया । यह संवेदनात्मक व्यवहार है । आध्यात्मिक व्यक्ति प्रिय और अप्रिय शब्द के अर्थ से परिचित होता है फिर भी प्रियता और अप्रियता के बोझ से अपनेआपको भारी नहीं बनाता । केवल व्यवहार स्तर पर जीने वाले लोग प्रियता और अप्रियता के बोझ से लदे रहते हैं । उनका मानसिक तनाव कभी समाप्त नहीं होता। उनकी सारी चिता प्रिय को अनुगृहीत और अप्रिय को निगृहीत करने में लगी रहती हैं ।
आध्यात्मिक व्यवहार का चौथा सूत्र है -सत्याभिमुखता । आध्या-त्मिक व्यक्ति सत्य की दिशा में मुंह करके चलता है। कोरा व्यावहारिक व्यक्ति पदार्थाभिमुख होता है । उसका मुंह सदा पदार्थ की ओर रहता है। आध्यात्मिक व्यक्ति भी पदार्थ के बिना नहीं जी सकता । जीवन-यात्रा चलाने' के लिए पदार्थ नितान्त जरूरी है । पदार्थ और पदार्थाभिमुखता – ये दोनों एक नहीं हैं । सुख मन की अवस्था है । पदार्थ सुखानुभूति का निमित्त हो सकता है, किन्तु सुख पदार्थ की अवस्था नहीं है । पदार्थ होने पर भी कोई सुखी नहीं होता और पदार्थ न होने पर भी कोई सुखी होता है, इसलिए.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org