Book Title: Kisne Kaha Man Chanchal Hain
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 333
________________ ३२० किसने कहा मन चंचल है कि दोनों पलड़े समान रहें, कोई भी मुका हुआ न हो । सांझ हुई। तुलाघर वैश्य दुकान बंद करने लगा। ऋषि पास में जाकर बोले-"भाई ! क्या तुम्हारा नाम तुलाधर है ?" "हां, जाजली ! आए हो तुम ! कहोकिसलिए आए हो?" "मैं तुम्हारी साधना जानने के लिए आया हूं। तुम्हारी साधना का ममं क्या है ?" ऋषि ने पूछा। तुलाधर ने कहा-"मेरी और कोई साधना नहीं है। मैं तो व्यापारी हूं। व्यापार करता हूं । वस्तुएं तोलता हूं किन्तु एक बात का ध्यान रखता हूं कि दोनों पलड़े समान हों, दोनों पलड़ों को समान रखता हैं। इस बाहरी संतुलन ने मेरे भीतर भी संतुलन पैदा कर दिया।" जब भीतर संतुलन का बलय बन जाता है तो ध्यान अपने-आप सिद्ध हो जाता है और समाधि भी सिद्ध हो जाती है। __ तुलाधर वैश्य ने बाहरी संतुलन साधा। उसका आन्तरिक संतुलन सध गया। अब अलग ध्यान करने की आवश्यकता नहीं रही । ध्यान सहज बन गया। ऋषि जाजली को बोध मिला कि मैंने तपस्या की, किन्तु संतुलन नहीं सघा। संतुलन बनता तो अहं कैसे आता ? संतुलन की अवस्था में सारे द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं । जीवन के प्रति झुकाव होता है तो संतुलन बिगड़ जाता है । मौत के प्रति झुकाव होता है तो भी संतुलन बिगड़ जाता है। लाभ और अलाभ के प्रति, मान और अपमान के प्रति, निन्दा और प्रशंसा के प्रति जो झुकाव होता है वह भी असंतुलन पैदा करता है । जो समस्त द्वन्द्वों के प्रति सम रहता है, संतुलन बनाए रखता है, वह है अध्यात्म का उपासक । अध्यात्म का दूसरा सूत्र है-संतुलित व्यवहार । आध्यात्मिक शक्ति का व्यवहार ज्ञानात्मक होगा । यह तीसरा सूत्र है। व्यवहार के धरातल पर जीने वाले व्यक्ति का व्यवहार संवेदनात्मक होगा। ज्ञान और संवेदना दो हैं। चेतना के विकास की पहली भूमिका है संवेदना। ज्ञान उसके आगे की भूमिका है। अविकसित प्राणियों में संवेदना होती है, पर ज्ञान नहीं होता। जितने अविकसित प्राणी हैं उनकी चेतना संवेदना के स्तर पर काम करती है, ज्ञान के स्तर पर काम नहीं करती। सुना होगा रविशंकर ठाकुर प्रसिद्ध सितारवादक थे । वे कनाडा गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342