Book Title: Kisne Kaha Man Chanchal Hain
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 331
________________ ३१८ किसने कहा मन चंचल है पर कोई दया करता है तो यह कोई स्वतंत्र क्रिया नहीं है । यह प्रतिक्रिया है। किन्तु यह मेरा धर्म है कि मैं प्राणीमात्र को अपनी आत्मा के समान समझता हूं और उसके साथ मैत्री का व्यवहार करता हूं। यह स्वतंत्र कर्तव्य है, स्वतंत्र मूल्य है, क्रियात्मक कार्य है । ___ मैं इसलिए प्रसन्न होऊं कि दूसरे ने मेरी प्रशंसा कर दी और इसलिए नाराज होऊं कि दूसरे ने मुझे गालियां दे दी-यह सारा प्रतिक्रियात्मक व्यवहार है । व्यवहार के स्तर पर जीने वाला प्रत्येक व्यक्ति सदा प्रतिक्रियात्मक व्यवहार करता है । क्रियात्मक व्यवहार करने का उसके साथ कोई दर्शन जुड़ा हुआ नहीं है। अन्यथा व्यवहार का पहला सूत्र है-क्रियात्मक व्यवहार । जो व्यक्ति आध्यात्मिक है वह सदा क्रियात्मक व्यवहार करेगा, क्योंकि वह उसका धर्म है । उसने मेरा उपकार किया है तो मुझे उसका उपकार करना चाहिए, उसने मुझे सहयोग दिया है तो मुझे उसको सहयोग देना चाहिए-यह उसका चिन्तन नहीं होगा। वह सोचता है-कोई मेरा उपकार करे या न करे, मुझे सहयोग दे या न दे, मैं सदा दूसरों का उपकार करूंगा, सहयोग दूंगा। एक श्रमण दूसरे श्रमण के पास गया। दोनों के बीच कटुता थी। उसने जाकर कहा-"भंते ! आपके साथ कुछ अनबन हो गई, मैं उसके लिए क्षमा मांगता हूं।" दूसरे श्रमण ने सुना । वह कुछ नहीं बोला । अनेक प्रयत्न करने पर भी उसने मुंह नहीं खोला । तब वह आचार्य के पास जाकर बोला-"देव ! मैं अमुक श्रमण से क्षमा-याचना करने गया। हजार प्रयत्न करने पर भी वह न क्षमा करता है और न बोलता है। अब मुझे क्या करना चाहिए ?" आचार्य ने कहा-"वत्स ! वह क्षमा करे या न करे, उसकी अपनी इच्छा है । तुम्हें निर्मल मन से क्षमा मांग लेनी चाहिए। तुम क्षमा मांगो और वह तुम्हें क्षमा दे-यह व्यवहार होगा, प्रतिक्रिया होगी।" एक कवि ने कहा 'तुम आओ डग एक तो, हम आयें डग अट्ठ। तुम हमसे करड़े रहो तो, हम हैं करड़े लट्ठ ॥' यह प्रतिक्रिया की बात है। यह सारा प्रतिक्रिया का व्यवहार है। आध्यात्मिक व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता। वह नहीं सोच सकता कि 'तुम ऐसा करो तो मैं ऐसा करूं ।' यह समझौते की बात वह कभी सोच नहीं सकता । वह कहता है-"यह मेरा धर्म है, मुझे यह करना चाहिए।" आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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