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अध्यात्म का रहस्य-सूत्र
निर्विचार । कर्म को भी हम तीन भागों में बांट सकते हैं-बुरा कर्म, अच्छा कर्म और अकर्म । 'बुरे विचार' भी एक तरंग हैं और 'अच्छे विचार' भी तरंग हैं। दोनों तरंग हैं। दोनों में, तरंग की दृष्टि से, कोई अन्तर नहीं है। किन्तु एक तरंग और दूसरी तरंग में बहुत बड़ा अन्तर होता है। सामान्य आदमी यह मानता है कि इस संसार में रंग है, रूप है, ध्वनियां हैं, ताप है, सब-कुछ है । किन्तु एक वैज्ञानिक इस भाषा में नहीं सोचेगा। वैज्ञानिक के लिए यह दुनिया न रंगमय है, न रूपमय है, न ध्वनिमय है, न तापमय है । उसके लिए यह जगत् काल और विद्युत् का प्रवाह मात्र है। सब कुछ विद्युत्मय है। ऐसी स्थिति में अच्छा सोनना भी विद्युत् की तरंग है और बुरा सोचना भी विद्युत् की तरंग है । सोचना, चिन्तन करना, प्रवृत्ति करना, सब कुछ विद्युत् की तरंग है। यदि हम निस्तरंग की ओर बढ़ना चाहते हैं, तरंगातीत स्थिति में जाना चाहते हैं तो उसकी यही प्रक्रिया होगी कि सबसे पहले बुरी तरंग को समाप्त कर अच्छी तरंग का निर्माण करें। अच्छी तरंग का निर्माण किए बिना बुरी तरंग को समाप्त नहीं किया जा सकता । जिस बुरे चिंतन से व्यक्ति तरंगातीत स्थिति से दूर चला गया था वह अच्छे चिंतन से उस दिशा में कदम बढ़ा सकता है। यद्यपि अच्छे चिंतन से भी व्यक्ति तरंगातीत अवस्था में नहीं पहुंच सकता किन्तु जहां बुरा चिंतन तरंगातीत से हमारी दिशा को मोड़ देता है वहां अच्छा चितन उस दिशा में गति कराता है।
बुरे चितन से अच्छे चिंतन में आने का सबसे सरल उपाय है-लेश्या ध्यान । इस ध्यान का अभ्यास किए बिना चिंतन को नहीं मोड़ा जा सकता। सामाजिक सम्बन्धों के कारण व्यक्ति में शत्रता के भाव आते रहते हैं। दूसरे का अनिष्ट करने की भावना उसमें पनपती है। अप्रिय व्यक्ति के सामने आते ही आंखें तमतमा जाती हैं । विरोधी व्यक्ति की स्मृति होते ही सारी चिंतन धारा प्रकंपित हो जाती है। इन प्रतिक्रियाओं को तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक शुद्ध लेश्याओं का ध्यान नहीं किया जाता । तेजस, पद्म और शुक्ल - ये तीन शुद्ध लेश्याएं हैं। इनका वर्ण है-प्रशस्त लाल, प्रशस्त पीत प्रशस्त श्वेत । इन वर्गों का ध्यान कर हम आंतरिक प्रक्रिया को बदल सकते हैं और मन की आन्तरिक प्रक्रिया के द्वारा फिर उन वर्गों में परिवर्तन शुरू हो जाता है । तब हम बाहर से भीतर को प्रभावित करते हैं और भीतर से बाहर को प्रभावित करते हैं।
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