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व्यक्तित्व का नव निर्माण
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में दमित इच्छाओं का उभार कहते हैं। दोनों का आशय तो निकट है ही, भाषा की दूरी भी नहीं है।
__ हमारे समूचे व्यक्तित्व के पीछे व्यक्तित्व में घटित होने वाली घटनाओं के पीछे जो रहस्यमय सत्ता छिपी हुई है, वह है सूक्ष्म शरीर या कर्मशरीर का सत्ता या सूक्ष्म शरीरीय चेतना की सत्ता । इसे हम परामानसिक सत्ता कहते हैं। इस तक पहुंचे बिना किसी भी कार्य या घटना की व्याख्या नहीं की जा सकती।
कर्म का संबंध परामानसिक है । एक व्यक्ति उसी भूखंड में रहता है जहां दूसरे लोग रहते हैं। कुछ लोगों पर भौगोलिकता का असर नहीं होता और कुछ लोगों पर भौगोलिकता का प्रभाव होता है। इसकी व्याख्या कैसे की जाए ? यदि हम केवल भौगोलिकता के आधार पर उसकी व्याख्या करें तो पूरी व्याख्या नहीं हो सकती । परामानसिक व्यक्तित्व उस में परिवर्तन ला देता है । आनुवंशिकता की बात भी ऐसी ही है। यह भी सर्वथा लागू होने वाला सार्वभौम सिद्धांत नहीं है। शारीरिक, सामाजिक और मानसिक व्यक्तित्वों में भी अनेक अपवाद मिलते हैं। उन सब अपवादों को घटित करने वाला परामान सिक व्यक्तित्व है । परामानसिक व्यक्तित्व व्यक्ति को चलते-चलते बदल देता है । चेतन मन की इच्छा होती है- साधना करूं, ध्यान करूं । किन्तु परामानसिक व्यक्तित्व एक ऐसी प्रक्रिया चालू करता है कि ध्यान कहीं का कहीं रह जाता है, सर्वथा छूट जाता है और व्यक्ति ध्यान की प्रतिकूल अवस्थाओं में चला जाता है। मन की इच्छा कुछ होती है और उसके विपरीत ही सब-कुछ घटित होने लग जाता है। कोई व्यक्ति सच्चरित्र है, सामाजिक प्रतिबद्धताओं, नियमों और अवधारणाओं को मानकर चलने वाला है, किन्तु ऐसा कोई अकल्पित कार्य कर बैठता है कि लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं । वे सोचते हैं-ऐसे आदमी ने यह जघन्य अपराध कैसे कर डाला? कितना समझदार, बुद्धिमान और विवेकी था वह, फिर भी यह कार्य कर बैठा । वहां लोगों की समझ काम नहीं करती। तर्क के आधार पर भी इसे नहीं समझा जा सकता। वह कार्य अतार्किक और अहैतुक है । कोई तर्क या हेतु स्पष्ट नहीं दीखता। किन्तु उसके भीतर भी एक सूक्ष्म हेतु है, जो उस कार्य को घटित करता है। वह सूक्ष्म हेतु अन्दर काम करता है । हम सामायिक करें, मन की शक्ति के साथ समता का उपयोग करें या और कुछ करें, हम इस सचाई को अवश्य समझे कि जब तक
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