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व्यक्तित्व का नव निर्माण
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छोड़ देता हूं । सामायिक से पूर्व जो मेरा व्यक्तित्व था, उसका विसर्जन करता हूं | आज से मेरा नया जन्म होगा, व्यक्तित्व का नव निर्माण होगा और मैं नए सिरे से जन्म प्राप्त कर अपना जीवन धारण करूंगा ।"
यह बहुत बड़ी जागरूकता है। जब तक अतीत का शोधन नहीं होता तब तक हमारा संकल्प चलता नहीं है । व्यक्ति दिन में १०-२० बार सोच लेता है कि यह काम अच्छा नहीं है, मुझे नहीं करना चाहिए । किन्तु समय आते ही वही का वही काम हो जाता है । इसी प्रकार क्रोध न करने की सोचता है किन्तु घटना आते ही गुस्सा तैयार है । व्यक्ति अनेक मनोरथ निर्मित करता है किन्तु जब अवसर आता है तब सारी बातें व्यर्थ हो जाती हैं, विलीन हो जाती हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसलिए होता है कि हम केवल वर्तमान को सुधारना चाहते हैं, किन्तु अतीत की निर्जरा करना नहीं चाहते । अतीत की निर्जरा किए बिना, अतीत की शक्ति को क्षीण किए बिना केवल वर्तमान को सुधारने की बात व्यर्थ हो जाती है । वर्तमान में रहना बहुत ही जरूरी है । किन्तु वर्तमान में रहना तभी संभव है जब अतीत पीछा करना छोड़ दे । अतीत को क्षीण करने का एकमात्र उपाय है- - द्रष्टाभाव का विकास। जिस व्यक्ति ने अपने द्रष्टाभाव को विकसित कर लिया उसने अतीत से अपना पिंड छुड़ा लिया । जिसने द्रष्टाभाव का विकास नहीं किया, उसे अतीत भूत की भांति सताता रहता है। जब वह ध्यान करने बैठता है तब हजारों प्रकार की वासनाएं उभर आती हैं । व्यक्ति निराश हो जाता है । सोचता है-ध्यान मेरे वश की मन की शांति के लिए करता हूं किन्तु ध्यान करने के अशांत हो जाता है । वह निराश व्यक्ति ध्यान को छोड़ देता है । जब तक द्रष्टाभाव का विकास नहीं होता तब तक स्थिति में परिवर्तन नहीं हो सकता । प्रेक्षाध्यान के अभ्यास से द्रष्टाभाव विकसित होता है । प्रेक्षाध्यान से वह सुस्थिर होता है । हमारी चेतना की ऐसी अवस्था निर्मित हो जाती है कि जो कुछ घटित होता है वह देखा जाता है, प्रतिक्रिया नहीं होती । साधक मात्र द्रष्टा रहे, प्रतिक्रिया न करे । द्रष्टाभाव का विकास होते ही प्रतिक्रियाए पीछे रह जाती हैं ।
बात नहीं है । ध्यान
लिए बैठते ही मन
अतीत का रेचन करने के लिए दो आलंबन अपेक्षित हैं — कायोत्सर्गं और प्रेक्षा । जब साधक को यह लगे कि अतीत सता रहा है, मन को झकभोर रहा है, वासनाएं उभर रही हैं, आकांक्षाएं बढ़ रही हैं, लोभ बढ़ रहा
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