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व्यक्तित्व का नव निर्माण
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आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति पंचकर्म के द्वारा दोषों को समाप्त कर शरीर को स्वस्थ बनाती है ।
ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति दोषों को दबाती है । जब दोष दब जाते हैं तब व्यक्ति में स्वस्थ होने का भ्रम पैदा होता है । कालान्तर में वे -दोष उभरते हैं और व्यक्ति को दबोच लेते हैं ।
नियंत्रण से बुराई को मिटाने की तुलना ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति से की जा सकती है। इसमें बुराई मिटती नहीं, उपशांत होती है । जो उपशांत होती है, वह उभरती है । जो मिट जाती है, उसके उभार का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । मोह कर्म का उपशमन करने वाला वीतराग की स्थिति तक चला जा सकता है । उसका वीतराग व्यक्तित्व प्रकट हो जाता है । किन्तु 'उस साधक ने मोह के अणुओं को दबाया है, उपशांत किया है ! उसने कषायों का उपशमन किया है । वे आत्मा में दबे पड़े हैं । उनका अस्तित्व - बना हुआ है । निमित्त मिलते ही वे उछलते हैं और वीतराग व्यक्ति पुनः अवीतराग बन जाता है नीचे चला जाता है, गिर जाता है । वह लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता ।
उपशमन की प्रक्रिया, दबाने की प्रक्रिया, भीतर रहने देने की प्रक्रिया - बहुत ही खतरनाक होती है । बहुत सारे अधिकारी लोग प्रतिकूल घटना को दबाने में अधिक विश्वास करते हैं । वे भूल जाते हैं कि दबी हुई घटना भयंकर रूप धारण करती है और उससे अपराध भी भयंकर होता है ।
साधक दबाए नहीं, परिष्कार करे, निर्जरा करे । विचार चाहे अच्छा हो या बुरा, उसे दबाए नहीं उसे खुलकर आने दे । साधक केवल मन का कायोत्सर्ग करे, वचन का कायोत्सर्ग करे और शरीर का कायोत्सर्ग करे | साधक जागरूकता से बहुत कुछ देखता रहे। जैसे श्वास और शरीर की प्रेक्षा करते हैं, जैसे चैतन्य- केन्द्रों और कर्म विपाकों की प्रेक्षा करते हैं, वैसे ही विचारों की प्रेक्षा करें। विचारों को तटस्थभाव से देखते चले जाएं । विचार अपने आप विसर्जित हो जाएंगे । जब तक उनका रेचन नहीं होगा तब तक वे सताते रहेंगे ।
प्राणायाम में तीन बातें की जाती हैं— रेचक, पूरक और कुंभक । हमारे व्यक्तित्व में दो बातें प्राप्त होती हैं—- रेचक और पूरक, छोड़ना और लेना । किन्तु वास्तव में देखा जाए तो लेने की बात गौण हो जाती है, क्योंकि हम मानते हैं कि आत्मा पूर्ण है । आत्मा को कुछ भी लेना नहीं है ।
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