Book Title: Kisne Kaha Man Chanchal Hain
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 302
________________ प्रेक्षाध्यान और मानसिक प्रशिक्षण २८ का दार्शनिक इस दृष्टि से, कोरा वकील या तार्किक बन गया है। आज दर्शन की विचित्र स्थिति है । आज विद्याओं की अनेक शाखाओं में दर्शन की दयनीय स्थिति है। जहां विज्ञान की शाखा में सैकड़ों विद्यार्थी मिल जाते है, वहां दर्शन के विद्यार्थी पांच-दस ही मिल पाते हैं। प्रेक्षा-ध्यान की प्रक्रिया दर्शन के पुनर्जागरण की प्रक्रिया है। यह दर्शन की प्रक्रिया है, देखने की प्रक्रिया है। पुराने जमाने के दार्शनिक ऋषि कहलाते थे । ऋषि का अर्थ है-द्रष्टा, देखने वाला । 'दर्शनात् ऋषिः।' जो देखने वाला होता है वह ऋषि कहलाता है। एक समय आया जब देखने वाले समाप्त होने लगे । तब देवताओं ने कहा-"अब हमारा सहारा कौन होगा? ऋषि सब जा रहे हैं।" कहा गया अब ऋषियों के अभाव में तुम्हारा सहारा तर्क होगा । तब से तर्क का प्राबल्य हुआ। दर्शन-मूलक दर्शन के द्वारा आत्मा उपलब्ध होती है, समन्वय सधता है, मैत्री उपलब्ध होती है । तर्क-मूलक दर्शन के द्वारा संघर्ष बढ़े हैं, विवाद और जय-पराजय की भावना बढ़ी है । मध्ययुगीन दार्शनिक ग्रन्थों में प्रत्येक दर्शन का ताकिक रूप उपलब्ध होता है। उसमें जय-पराजय की व्यवस्थित प्रक्रिया है । अपने पक्ष का समर्थन और पर-पक्ष का खंडन कैसे किया जाए, कौन-कौन-से तर्क दिये जाएं, इसकी व्यवस्थित पद्धति निर्दिष्ट है । उनमें छल, जाति और वितण्डा का भी निर्देश है। वाद-विवाद में इनका प्रयोग भी स्वीकृत है, सहमत है। यह मान्य कर लिया गया कि प्रतिपक्षी को पराजित करने के लिए यदि छल, जाति और वितण्डा का प्रयोग किया जाता है तो वह अनुचित नहीं है, उचित है। प्रतिपक्षी को हराने के लिए प्रत्येक दर्शन ने क्या-क्या विधान नहीं किए। उनमें शुद्ध दर्शन की बात छूट गयी। केवल जय-पराजय ही लक्ष्य बन गया। इसके फलस्वरूप विवाद बढ़े, मतभेद खड़े हो गए। अनुभव के क्षेत्र दो नहीं हो सकते। इस क्षेत्र में चाहे 'क' जाए या 'ख' जाए, चाहे भारत का व्यक्ति जाए या यूरोप का व्यक्ति जाए। अनुभव में द्वैध नहीं हो सकता । इसमें काल का व्यवधान भी नहीं होता। आज भी वही अनुभव और दस हजार वर्ष पहले भी वही अनुभव । अनुभव में कोई अन्तर नहीं आता । एक ही परिणाम होगा। एक ही प्रकार की चेतना का जागरण होगा। कोई मतभेद नहीं हो सकता। धर्म और अध्यात्म में कोई द्वैत नहीं होता । सारा द्वैध, सारा संघर्ष होता है तर्क-मूलक दर्शन में। आज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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